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Exam Result के टेंशन से कैसे बचे Full Guide

Exam Result के टेंशन से कैसे बचे Full Guide
हैलो दोस्तों कैसे हो आप सब?
दोस्तों जो बाते मै आज आप सभी से शेयर करूँगा हो भी सकता है की आप सभी को जरूर  बहुत पसन्द आयेगी
दोस्तों कुछ दिन बाद बोर्ड के और दूसरे सारे Exam Result Declare होने वाले है जिसके कारण बहुत सारे Parents और Students डिप्रेशन में चले जाते है।
कुछ Parents और Students तो ये बेकार की Tension करते रहते है क्या होगा कैसे होगा आज हम उन सभी के लिये इस Topic पर बात करने वाले है।
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दोस्तों जिंदगी हमेशा नही मिलती इसका Use करो Problems को Avoid करो यार।
  Life Like an Ice cream Test it Don't Waste it.
जो Exams Results होते है वो भी तो और Problems के जैसे है यार कुछ दिन रहेंगे फिर सब पहले जैसा Normal इससे ना सिर्फ कमजोर Students डरते है साथ में वो सभी Students भी डरते है जो की All India में Top Rank Achieve करते है ।
दोस्तों इससे डरते तो वो भी है जो Board Examination में State Top करते है।
जैसे की देखा गया है कि Examination Results को Parents और Students ने बस एक दिमाग की बीमारी जैसा बना दिया है।
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मेहनत करो सफलता तो मिल ही जायेगी।
दोस्तों आने वाले दिनों में सभी राज्यों के और Central Boards के भी Results Out होने वाला है तो सभी Parents और Students का Tension लेना एक तरफ से देखे तो स्वाभाविक है लेकिन मै उनसे ये कहना चाहता हूँ दोस्त   आप ये बेकार की Tension लेना छोड़ दो यार अब इस चीज़ का क्या फायदा।
अगर Practically सोचा जाये तो दोस्त 10th Class का Result सिर्फ Date Of Birth देखने के काम आती है Marks के लिये वो तभी जरूरी होते है जब आपको 11th Class में Admission दिया जायेगा और आप अपना Stream Choose करोगें।अगर किसी के कम Marks भी आते है तो भी कोई नही यार 12th Class की Prepration में लग जाओ।क्योकि सिर्फ वही से आपका Carrier आपका Future Decide होगा की करना क्या है खुद से Question करो यार की क्या बस 10th में या 12th में High Marks लाना ही आपका Aim था ।मेरे दोस्तों असली जिंदगी तो अब Start होगी अब जा कर आप अपने हौसलों को उड़ान देकर सफलता को Achieve करोगे। में दोस्तों जिंदगी में कितना कुछ भी हो कितने बुरे से बुरे दिन भी देखने पड़े Never Lost Ho
pe & Never Give Up.
बस इतना याद रहे
आने वाले रिजल्ट में तुम्हारी अपेक्षा से कम अंक भी आएं तो मत भूलना..
मार्कसीट महज कागज का टुकड़ा है 
मगर
तुम किसी के दिल के टुकड़े हो..
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_Best of luck_
  Be Happy
Thanku For Reading अगर Post पसंद आये तो जरूर शेयर कीजिये।
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गढ़वाल के कुछ वीर गढ़रत्न कौन थे ?

गढ़वाल के कुछ वीर गढ़रत्न कौन थे ?

गढ़रत्न

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- लोदी रिखोला गढ़वाल के भीम इतने शक्तिशाली पहलवान थे की नजीबाबाद के किले के मुख्य द्वार को उखाड़कर स्वयं रिखनी ख़ाल उठाकर ले आये थे 

- पन्थ्या काला ने तत्कालीन राजा के काले कानून का निरंतर तीव्र विरोध कर सत्याग्रह करते हुए अंत में आत्म दाह कर काले कानून को समाप्त करवा कर ही जनता को राहत दिलाई 

- माधो सिंह भंडारी शूरमा थे जिन्होंने मलेथा जैसी ऊसर भूमि के लिए गूल निकालने के लिए ही पहाड़ काटकर एक नहर बना दी जिसके लिए उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र की बलि दे दी थी!

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- गढ़ भूमि की लक्ष्मीबाई कहलाने वाली वीरांगना तीलू रौतेली ने गढ़वाल की पूर्वी सीमा पर आक्रमणकारी एवं अत्याचारी कत्यूरों से निरंतर सात वर्षों तक जूझते हुए त्रस्त सीमान्त जनता को राहत की सांस दिलाई !
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- अंग्रेजी राज्य में शौर्यपुन्ज दरबान सिंह नेगी तथा गबर सिंह नेगी ने द्वितीय महायुद्ध के दौरान फ़्रांस में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए और मरणोपरांत विक्टोरिया क्रोस नामक तत्कालीन सर्वोच्च शौर्य पदक प्राप्त कर गढ़वाल का नाम रोशन किया   !
- दूसरे  महायुद्ध के दौरान ही तोता राम थपलियाल ने एक विशेष गढ़वाली पलटन खड़ी की और उसका नेतृत्व कर अपूर्व साहस व शौर्य का परिचय देकर सम्मान खडग (स्वोर्ड ऑफ़ हॉनर ) प्राप्त किया !

- इसी अंग्रेजी शासन काल में पेशावर कांड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली ने अपने ही भारतीयों पर गोली न चलाने की हुक्म उदूली करके भारतीय सेना में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सर्वप्रथम पहल की !

- शहीद श्रीदेव सुमन ने अपने अंचल को तत्कालीन राजतन्त्र से मुक्ति दिलाने के लिएकठिन एवं अमानवीय यातनाएं झेलते हुए अपना बलिदान दे दिया !

- गढ़ चाणक्य कहलाने वाले वीर पुरिया नैथानी ने सुन्नी मुसलमान शहंशाहे -हिंद औरंगजेब के दरबार में जाकर निर्भयतापूर्वक अरबी -फारसी में वार्तालाप कर अपने वाक्चातुर्य से गढ़वाल राज्य को जजिया कर से मुक्ति दिलाई ! 
और सय्यद मुस्लमान से कोटद्वार भाभर के इलाके को मुक्त करवाया और इस्लामी सेना द्वारा गढ़वाल के मंदिरों को तोड़ने से रुकवाया !

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१० - सन १९६२ के भारत चीन युद्ध में ३०० चीनी सैनिको को मौत की नींदसुलाकर भारत माँ की रक्षा करते हुए खुद भी अरुणांचल की तवांग घाटीें सदा के लिए सोया वीर जवान जसवंत सिंह आज भी जसवंत गढ़ में अपनी ड्यूटी दे रहा है! जो आज भी ड्यूटी के दौरान जवानों को सोने नहीं देता !

ऐसे गढ़ गौरवों के महान  कार्य  जनमानस में केवल पवाड़ों, चौफ्लों ,थडिया गीतों तथा जागरों तक ही सीमित हैं !
बहुत ही खेद का विषय है कि इन्हें पुस्तकों में जोड़नें की किसी ने भी कभी  कोशिश नही की
 । जय हो इन वीरआत्माओं की 
         । इन्हें नमन ।
    

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तो ये महत्व है उत्तराखंड की ब्राह्मण जातियों का

तो ये महत्व है उत्तराखंड की ब्राह्मण जातियों का
जब से विश्व में हिन्दू धर्म का निर्माण हुआ है उसी समय से उसके साथ ही धर्म-रक्षकों,धर्म-प्रचारको का भी जन्म हुआ है।जो समय-समय पर धर्म से जुड़े अनेक संसाधनों का सभी लोगो तक प्रसारित करती है।
अगर हम हिन्दू धर्म संस्कृति को देखे तो मनुष्य के जन्म से और मौत के बाद तक भी मतलब श्राद्ध व पिण्ड-दान और पितृ-दान तक का भी उल्लेख मिलता है।
इन सभी प्रकार के संस्कारो को निभाने  लिए हिन्दू-धर्म में पंडितों(ब्राम्हणों) पर आश्रित रहा जाता है।
आज हम उत्तराखंड के कुछ मुख्य ब्राह्मण जातियों के इतिहास पर प्रकाश डालेंगे जिनकी धनक ना सिर्फ भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में हैं।
मूल रूप से गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां तीन हिस्सो में बांटी गई है :-
1 सरोला
2 गंगाड़ी
3 नाना
सरला और गंगाड़ी 8 वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान मैदानी भाग से उत्तराखंड आए थे। पवार शासक के राजपुरोहित के रूप में सरोला आये थे।

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गढ़वाल में आने के बाद सरोला और गंगाड़ी लोगो ने नाना गौत्र के ब्राह्मणों से शादी की।
सरोला ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया भोजन सब लोग खा लेते है परंतु गंगाड़ी जाती का अधिकार केवल अपने सगे-सम्बन्धियो तक ही सिमित है। 
1. नौटियाल -
700 साल पहले टिहरी से आकर तली चांदपुर में नौटी गाँव में आकर बस गए !  
आप के आदि पुरष है नीलकंठ और देविदया, जो गौर ब्राहमण है।।
नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ सम्वत 945 मै धर मालवा से आकर यहाँ बसी, इनके बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद मैं नौटी नाम मैं परिवर्तित हो गया और यही से ये जाती नौटियाल नाम से प्रसिद हुई।
2. डोभाल -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों मैं डोभाल जाती सम्वत 945 मै संतोली कर्नाटक से आई मूलतः कान्यकुब्ज ब्रह्मण जाती थी। 
मूल पुरुष कर्णजीत डोभा गाँव मैं बसने से डोभाल कहलाये। 
गढ़वाल के पुराने राजपरिवार मैं भी इस जाती के लोग बड़े पदों पर भी रहे है।
ये चोथोकी जातीय सरोलाओ की बराथोकी जातियों के सम्कक्ष थी जो नवी दसवी सदी के आसपास आई और चोथोकी कहलाई।
3.  रतूड़ी -
सरोला जाती की प्रमुख जाती रतूडी मूलत अद्यागौड़ ब्रह्मण है,
जो गौड़ देश से सम्वत 980 मैं आये थे।
इनके मुल्पुरुष सत्यानन्द,राजबल सीला पट्टी के चांदपुर के समीप रतूडा गाँव मैं बसे थे और यही से ये रतूडी नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के लोगो का भी गढ़वाल नरेशों पर दबदबा लम्बे समय तक बरकरार रहा था।
गढ़वाल का सर्व प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय इसी जाती के युग पुरुष टिहरी राजदरबार के वजीर पंडित हरीकृषण रतूडी को जाता है।
4. गैरोला -
इनका पैत्रिक गाव चांदपुर तैल पट्टी है।इनके आदि पुरष है गयानन्द और विजयनन्द।।
5.  डिमरी -
आप दक्षिण से आकर पट्टी तली चांदपुर दिमार गाव में आकर बस गए !
ये द्रविड़ ब्राह्मन है।।
6.  थपलियाल -
ये 1100  साल पहीले पट्टी सीली चांदपुर के ग्राम थापली में आकर बस गए।
इनके आदी पुरुष जैचानद माईचंद और जैपाल, जो गौर ब्राहमण है।।
गढ़वाली ब्राह्मणों की बेहद खास जाती जिनकी आराध्य माँ ज्वाल्पा है।
इस जाती के विद्वानों की धाक चांदपुर गढ़ी, देवलगढ़ ,श्रीनगर,और टिहरी राजदरबार मैं बराबर बनी रहती थी।
थपलियाल अद्यागौड़ है जो गौड देश से सम्वत 980 में थापली गाँव में बसे और इसी नाम से उनकी जाती संज्ञा थपलियाल हुई।
ये जाती भी गढ़वाल के मूल बराथोकी सरोलाओ मैं से एक है।
नागपुर मैं थाला थपलियाल जाती का प्रसिद गाँव है,
जहा के विद्वान आयुर्वेद के बडे सिद्ध ब्राह्मण थे।
7. बिजल्वाण -
इनके आदि पुरूष है बीजो / बिज्जू। इन्ही के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बिज्ल्वान हुई।
गढ़वाल की सरोला जाती मैं बिज्ल्वान एक प्रमुख जाती सज्ञा है, इनकी पूर्व जाती गौड़ थी जी 1100 के आसपास गढ़वाल के चांदपुर परगने मैं आई थी,और इस जाती का मूल स्थान वीरभूमि बंगाल मैं है।।
8. लखेड़ा -
लगभग 1000 साल पहले कोलकत्ता के वीरभूमि से आकर उत्तराखंड में बसे।
उत्तराखंड के लगभग 70 गांवों में फैले लखेड़ा लोग एक ही पुरूष श्रद्धेय भानुवीर नारद जी की संतानें हैं।
ये सरोला ब्राह्मण है।।
9. बहुगुणा -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों में बहुगुणा जाती सम्वत 980 में गौड़ बंगाल से आई मूलतः अद्यागौड़ जाती थी।
10. कोठियाल -
सरोला जाती की यह एक प्रमुख शाखा है,जो चांदपुर मैं कोटी गाँव मैं आकर बसी थी और यहाँ बसने से ही कोठियाल जाती नाम से प्रसिद हुई।
इनकी मूल जाती गौड़ है।
चांदपुर गढ़ी के राजपरिवार द्वारा बाद मैं कोटी को सरोला मान्यता प्रदान की गयी थी।
इस जाती के अधिकार क्षेत्र मैं बद्रीनाथ मंदिर की पूजा व्यवस्था मैं हक़ हकूक भी शामिल है।
11. उनियाल -
839 इ. पू. जयानंद और विजयानंद नाम के दो चचेरे भाई (ओझा और झा) दरभंगा (मगध-बिहार) से  श्रीनगर,गढ़वाल में आये। वो मैथली ब्राह्मण थे।
प्रसिद्ध कवि विद्यापति और राजनीतिज्ञ / अर्थशास्त्री चाणक्य (कौटिल्य) उनके पूर्वजों में से एक थे।
उन्हें "ओनी" में जागिर दी गई थी, इसलिए ओझा और झा (दो अलग गोत्र - कश्यप और भारद्वाज) को एक जाति ओनियाल में बनी, जो बाद में उनियाल बन गई।
माता भगवती सभी यूनियाल,ओजा,झा और द्रविड़ ब्राह्मणों के कुलदेवी हैं।
12. पैनुली पैन्यूली -
पैनुली / पैन्यूली मूलतः गौड़ ब्रह्मण है।
दक्षिन भारत से 1207 में मूल पुरुष ब्र्ह्मनाथ द्वारा पन्याला गाँव रमोली मैं बसने से इस जाती का नाम पैनुली / पैन्यूली प्रसिद हुआ।
इस जाती के कई लोग श्रीनगर राज-दरबार और टिहरी मैं उच्च पदों पर आसीन हुए।
इस जाती के श्री परिपुरणा नन्द पैन्यूली 1971-1976 मैं टिहरी गढ़वाल के संसद भी रहे है।
13. ढौंडियाल -
गढ़वाल नरेश राजा महिपती शाह द्वारा 14 और 15 वी सदी मैं चोथोकी वर्ग मैं वृद्धि करते हुए 32 अन्य जातियों को इस वर्ग मैं सामिल किया था जिनमे ढौंडियाल प्रमुख जाती थी।
इस जाती के मूल पुरुष गौड़ जाती के ब्राहमण थे जो राजपुताना से गढ़वाल सम्वत 1713 मैं गढ़वाल आये थे। 
मूल पुरुष पंडित रूपचंद द्वारा ढोण्ड गाँव बसाया गया था,
जिस कारण इन्हें ढौंडियाल कहा गया।
14. नौडियाल -
मूलतः गढ़वाली गंगाडी ब्रह्मण जिनकी पूर्व जाती संज्ञा गौड़ थी।
मूल स्थान भृंग चिरंग से सम्वत 1543 में आये पंडित शशिधर द्वारा नोडी गाँव बसाया गया था।
नोडी गाँव के नाम पर ही इस जाती को नौडियाल कहा गया।
15. पोखरियाल -
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है इनकी पूर्व जाती सज्ञा विल्हित थी जो संवत 1678 में विलहित से आने के कारण हुई।
इस जाती के मूल पुरुष जो पहले विलहित और बाद मैं पोखरी गाँव जिला पौडी गढ़वाल मे बसने से पोखरियाल प्रसिद्ध हुए।
इस जाती नाम की कुछ ब्रह्मण जातीय हिन्दू राष्ट्र नेपाल मैं भी है,
जो प्रसिद शिव मंदिर पशुपति नाथ मैं पूजाधिकारी भी है।
ये जाती गढ़वाल मैं पौडी के अतिरिक्त चमोली मैं भी बसी हुई है ,
टिहरी मैं इसी जाती नाम से राजपूत जाती भी है,
जो सम्भवतः किसी पुराने गढ़ के कारण पड़ी हुई हो।
16. सकलानी -
गढ़वाल नरेशों द्वारा मुआफी के हक़दार भारद्वाज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की यह शाखा सम्वत 1700 के आसपास अवध से सकलाना गाँव मैं बसी।
इनके मूल पुरुष नाग देव ने सकलाना गाँव बसाया था,
बाद मैं इस जाती के नाम पर इस पट्टी का नाम सकलाना पड़ा।
राज पुरोहितो की यह जाती अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारन राजा द्वारा विशेष सुविधाओ से आरक्षित किये गये थे और जागीरदारी भी प्रदान की गयी।
17. चमोली -
मूल रूप से द्रविड़ ब्राह्मण है जो रामनाथ विल्हित से 924 में आकर गढ़वाल के चांदपुर के चमोली गाँव में बसे।
सरोलाओ की एक प्रमुख जाती जो मूल रूप से चमोली गाँव में बसने से अस्तित्व में आई थी जिसे पंडित धरनी धर,हरमी,विरमी ने बसाया था और गाँव के नाम पर ही ये जाती चमोली कहलाई।
ये जाती सरोलाओ के बारह थोकि में से एक प्रमुख है जो नंदा देवी राजजात में प्रमुख भूमिका निभाती है।
18. काला
गढ़वाल की यह वह प्रसिद जाती है जिसने आजादी के बाद सबसे बेहतर  प्रागति की है।
इस जाती मैं अभी तक सबसे अधिक प्रथम श्रेणी के अधिकार मौजूद है।
सुमाडी इस जाती का सबसे अधिक प्रसिद गाँव है.
जहा के "पन्थ्या दादा" एक महान इतिहास पुरुष हुए है।
19. पांथरी -
मूलतः सारस्वत ब्राहमण जो सम्वत 1543 में जालन्धर से आकर गढ़वाल मैं पंथर गाँव मैं बसे और पांथरी जाती नाम से प्रसिद्ध हुए।
इस जाती के मूल पुरुष अन्थु पन्थराम ने ही पंथर गाँव बसाया था।
20. खंडूरी / खंडूड़ी -
सरोलाओ की बारह थोकी जातियों मैं से एक खंडूरी मूलतः गौड़ ब्रह्मण है,
जिनका आगमन सम्वत 945 में वीरभूमि बंगाल से हुआ।
इनके मूल पुरुष सारन्धर एवं महेश्वर खंडूड़ी गाँव मैं बसे और खंडूड़ी जाती नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के अनेक वंसज गढ़वाल राज्य मैं दीवान एवं कानूनगो के पदों पर भी रहे।
बाद में राजा द्वारा इन्हें थोक-दारी दे कर गढ़वाल के विभिन्न गाँव को जागीर मैं दे दिया था।
21. सती -
गढ़वाल की सरोला जाती मैं से एक सती गुजरात से आई ब्रह्मण जाती है,जो चांदपुर गढी के शासको के निमंत्रण पर चांदपुर और कपीरी पट्टी मैं बसी थी। 
इस जाती की एक सखा नौनी/नवानी भी है।
इस जाती नाम के ब्राहमण गढ़वाल के कई कोनो मैं फैले है,
यहाँ तक की इस जाती के कुछ ब्राहमण कुमाऊँ मे भी है

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22. कंडवाल -
मूलतः सरोला जाती है जो कांडा गाँव मैं बसने से कंडवाल कहलाई है।
गढ़वाल के इतिहास मैं क्रमांक 19 से 26 तक की कुल आठ जातीय सरोला सूचि मैं सामिल की गयी है जिनमे कंडवाल जाती भी है।
कंडवाल जाती मूलतः कुमयुनी जाती है।जो कांडई नामक गाँव से यहाँ चांदपुर मैं सबसे पहले आकर बसी थी,जिनके मुल्पुरुष का नाम आग्मानंद था।
नागपुर की एक प्रसिद जाती कांडपाल भी इससे अपना सम्बन्ध बताती है।जिनके अनुसार( कांडपाल) का मूल गाँव कांडई आज भी अल्मोडा मैं है जहा के ये मूलतः कान्यकुब्ज (भारद्वाज गोत्री) कांडपाल वंसज है।
यही कुमाऊ से सन 1343 में श्रीकंठ नाम के विद्वान से निगमानंद और आगमानद ने कांडपाल वंश को यहाँ बसाया था,
जिनमे से एक भाई चांदपुर में बस गया और राजा द्वारा इन्हें ही सरोला मान्यता प्रदान कर दी गयी और चांदपुर में ये लोग कंडवाल नाम से प्रसिद हुए।
इसी जाती के दुसरे स्कन्ध में से निगमानद ने 1400 में कांडई गाँव बसाया था,कांडई में बसने से इन्हें कंडयाल भी कहा गया,
जो बाद मैं अपने मूल जाती नाम कांडपाल से प्रसिद्ध हुयी।
23. ममगाईं -
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है जो उज्जैन से आकर मामा के गाँव मैं बसने से ममगाईं कहलाये थे। ये जाती मूलतः पौडी जिले की है लेकिन टिहरी और उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले मैं भी इस जाती के गाँव बसे है।
महाराष्ट्र मूल के होने से वाह भी इस जाती के कुछ लोग रहते है।
नागपुर मैं भी इस जाती के कुछ परिवार बसे है,
जिनके रिश्ते नाते टिहरी और श्रीनगर के ब्राह्मणों से होते है।
24. भट्ट -
भट्ट सामन्यता एक विशेष जाती संज्ञा है जिसका आश्य प्रसिद्धि और विद्वता से है।
सामान्यतः ये एक प्रकार की उपाधि थी जो राजाओ द्वारा प्रदत होती थी,गढ़वाल की अन्य जाती सन्ज्ञाओ के अनुरूप ये उपाधि भी बाद में जातिनाम में बदल गयी,
कुछ लोग इनका मूल भट्ट ही मानते है।
गढ़वाल मैं भट्ट जाती सबसे अधिक प्रसार वाली जाती संज्ञा है।
ये सभी स्वयं को दक्षिन वंशी मानते है।
कालांतर में इनमे से अनेक ने आपने नए जाती नाम भी रखे है, भट्ट ही एक मात्र जाती है जो गढ़वाल में सरोला सूचि,गागाड़ी सूचि और नागपुरी सूची में शामिल की गयी है।
25. पन्त -
भारद्वाज गोत्रीय ब्राहमण है,जिनके मूल पुरुष जयदेव पन्त का कोकण महाराष्ट्र से 10 वी सदी में चंद राजाओ के साथ कुमाऊँ में आगमन हुआ।
इनके वंसज शर्मा श्रीनाथ नाथू एवं भावदास के नाम भी चार थोको मैं विभाजित हुए,
ये ही बाद में मूल कुमाउनी ब्राह्मण जाती पन्त हुई।
बाद मैं अल्मोडा,उप्रडा,कुंलता,बरसायत, बड़ाउ,म्लेरा में बसे शर्मा पन्त, श्रीनाथ पन्त, परासरी पन्त, और हटवाल पन्त,प्रमुख फाट बने।
ये सभी कुमाउनी पन्त थे,
बाद में इसी जाती के कुछ परिवार गढ़वाल के विभिन्न इलाको में बसे,विद्वान और ज्योतिष के क्षेत्र मैं उलेखनीय कार्यो ने यहाँ भी इन्हें उच्च स्तर तक पहुचा दिया।
    पन्त जाती का नागपुर में प्रसिद गाँव कुणजेटी है।ये नागपुर के 24 मठ मंदिरों मैं आचार्य वरण के अधिकारी है।
26. बर्थवाल/बड़थ्वाल -
मूलतः सारस्वत ब्राहमण है,जो संवत 1543 में गुजरात से आकर गढ़वाल में बसे।
इस जाती के मूल पुरुष पंडित सूर्य कमल मुरारी, बेड्थ नामक गाँव में बसे और बाद मैं जिनके वंसज बर्थवाल/बड़थ्वाल जाती नाम से प्रसिद हुए।
27. कुकरेती -
मूलतः द्रविड़ ब्रह्मण है,जो विल्हित नामक स्थान से आकर सम्वत 1352 में गढ़वाल मैं आये थे।
इनके  मूल-पुरूष गुरुपती कुकरकाटा गाँव मैं बसे थे,
यही से कुकरेती नाम से प्रसिद्ध हुए।

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28. अन्थ्वाल -
मूलतः सारस्वत ब्रह्मण.संवत 1555 में पंजाब से गढ़वाल में आगमन हुआ।
मूल पुरुष पंडित रामदेव अणेथ गाँव पौडी जिले मैं बसे,
यही से इनकी जाती संज्ञा अन्थ्वाल/ अणथ्वाल हुई।
इसी जाती के भै-बंध वर्तमान में श्री ज्वाल्पा धाम में भी ब्रह्मण है।
नागपुर में ऋषि जमदग्नि के प्रसिद गाँव जामु में भी अन्थ्वाल/ अणथ्वाल जाती के लोग रहते है।
अन्थ्वाल/अणथ्वाल जाती मूलतः गंधार अफगानिस्तान से आई ब्राह्मणों की पुराणी जाती है।
इसी दौर में इरान अफगानिस्तान से आई अनेक ब्रह्मण जातियों मैं मग जाती के ब्रह्मण के साथ ये भी थे।
अन्थ्वाल/अणथ्वाल नाम की एक जाती लाहौर वर्तमान पाकिस्तान में भी रहती है,
जो वहा के हिन्दू मंदिरों की पूजा सम्पन्न भी कराते है।
29. बेंजवाल -
बेंजी गाँव अगस्त्यमुनि से मन्दाकिनी के वाम परश्वा पर लगभग 3 किलोमीटर की खड़ी चढाई के बाद यह गाँव आता है।
बेंजी विजयजित का अपभ्रंस है जिसका आश्य विजय से था।
बीजमठ महाराष्ट्र से आये मूलतः कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का यहाँ गाँव 11 वी सदी के आस पास बसा था,जिनके मूल पुरुष का नाम पंडित देवसपति था,जो की मुनि अगस्त्य के पुराने आश्रम पुरानादेवल के पास बामनकोटि मैं बसे थे।
यही से भगवान अगस्त्य की समस्त पूजा अधिकार इस जाती के पास सम्मिलित हुए। जिसके प्रमाण में इस जाती के पास भगवान अगस्त्य से जुडा प्राचीन अगस्त्य कवच मजूद है।
बामनकोटि से से पंडित देवसपति के वंसज किर्तदेव और बामदेव ने बेंजी गाँव को बसाया था।
बेंजी के नाम पर इन्हें बिजाल/बेंजवाल कहा गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिन्सन ने हिमालयन गजेटियर मैं इस जाती वर्णन किया है।
बेंजी गाँव के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बेंजवाल हुई,ये ब्राहमण वंसज अगस्त्य ऋषि के साथ आये 64 गोत्रीय ब्राह्मणों मैं से एक थे।
साथ ही भगवान अगस्त्य से जुड़े 24 प्रमुख मंदिरों मैं ये पूरब चरण के अधिकारी है ब्रह्मण भी है।
30. पुरोहित -
पुरोहितो का आगमन 1663 में जम्मू कश्मीर से हुआ था।ये जम्मू कश्मीर राज-परिवार के कुल पुरोहित थे।
राजा के यहाँ पोरिह्त्य कार्य करने से पुरोहित नाम से प्रसिद हुए।
इनके पहले गाँव दसोली कोठा बधाण बसे, जहा से बाद में 1750 में ये नागपुर पट्टी में भी बसे।
31. नैथानी -
मूलरूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण है जो की सम्वत 1200 कन्नौज से गढ़वाल में आये।
आपके मूलपुरुष कर्णदेव, इंद्रपाल नैथाना गाँव, गढ़वाल में आकर बसे।
श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ (मन्दिर) का प्रबन्ध एवं व्यवस्था नैथानी जाति के लोग देखते हैं।
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क्या महत्व है उत्तराखंड की गर्जिया माँ का

क्या महत्व है उत्तराखंड की गर्जिया माँ का
सम्पूर्ण भारत वर्ष में अनेक देवी-देवताओं का पूजन किया जाता रहा है उन मे से माँ भगवती दुर्गा  प्रमुख है पुरे देश में माँ को अलग अलग रुपो मे पूजा जाता है।माँ भगवती के इतने सारे नाम और अलग अलग नामो से बने मन्दिर इसका बेहतरीन उदाहरण पेश करते है।
आज हम आपको ले चलते है फिर से उस जगत-जननी के चरणों मे,
हम चलते माँ के एक अदभुत रूप के दर्शन करने। गर्जिया देवी मन्दिर या 'गिरिजा देवी मन्दिर 'उत्तराखण्ड के सुंदरखाल गाँव में स्थित है, जो माता पार्वती के प्रमुख मंदिरों में से एक है।
यह मंदिर श्रद्धा एवं विश्वास का अद्भुत उदाहरण है।
उत्तराखण्ड का यह प्रसिद्ध मंदिर रामनगर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
मंदिर छोटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है, जहाँ का खूबसूरत वातावरण शांति एवं रमणीयता का एहसास दिलाता है।
देवी के प्रसिद्ध मन्दिरों में गिरिजा देवी (गर्जिया देवी) का स्थान अद्वितीय है। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ही इन्हें इस नाम से पुकारा जाता है।
मान्यता है कि जिन मन्दिरों में देवी वैष्णवी के रूप में स्थित होती हैं,
उनकी पूजा पुष्प प्रसाद से की जाती है और जहाँ शिव-शक्ति के रूप में होती हैं,
वहाँ बलिदान का प्रावधान है।
लेकिन बदलते वक़्त के साथ यह प्रथा भी इतिहास हो गयी है।

  1. माना गया है कि कूर्मांचल(वर्तमान में कुँमाऊ) की सबसे प्राचीन बस्ती ढिकुली के पास थी, जहाँ पर वर्तमान रामनगर बसा हुआ है।कोसी नदी के किनारे बसी इसी नगरी का नाम तब 'वैराट पत्तन' या 'वैराट नगर' था।कत्यूरी राजाओं के आने के पूर्व यहाँ पहले कुरु राजवंशके राजा राज्य करते थे,जो प्राचीन इन्द्रप्रस्थ(आधुनिक दिल्ली) के साम्राज्य की छत्रछाया में रहते थे।ढिकुली,गर्जिया क्षेत्र का लगभग 3000 वर्षों का अपना सुनहरा इतिहास रहा है।प्रख्यात कत्यूरी राजवंश,चन्द्र राजवंश, गोरखा वंश और अंग्रेज़ शासकों ने यहाँ की पवित्र भूमि का धार्मिक सुख भोगा है।गर्जिया नामक शक्ति स्थल सन 1940 से पहले उपेक्षित अवस्था में था,किन्तु 1940 से पहले की भी अनेक कहानियां इस स्थान का इतिहास बताती हैं।वर्ष1940 से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज जैसी नहीं थी,कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था।तत्कालीन जनमानस की धारणा थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था।मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देखकर भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- "थि रौ, बैणा थि रौ" अर्थात् 'ठहरो,बहन ठहरो',यहाँ पर मेरे साथ निवास करो।तभी से गर्जिया देवी उपटा में निवास कर रही हैं।
भौगोलिक दृश्या
माँ गर्जिया का मन्दिर कोसी नदी पर स्थित है।या सीधे शब्दों मे कहूँ तो कोसी रोज माँ के चरणों को धोती है।माँ का मन्दिर एक टीले पर स्थित है जहाँ पहुंचने के लिये 90 सीढ़ीयो का निर्माण किया गया है।
[1]धार्मिक मान्यता
मान्यता है कि वर्ष 1940 से पूर्व यह क्षेत्र भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था।
सर्वप्रथम जंगल विभाग के तत्कालीन कर्मचारियों तथा स्थानीय छुट-पुट निवासियों द्वारा टीले पर मूर्तियों को देखा गया और उन्हें माता जगत जननी की इस स्थान पर उपस्थिति का एहसास हुआ। एकान्त सुनसान जंगली क्षेत्र,
टीले के नीचे बहती कोसी नदी की प्रबल धारा,घास-फूस की सहायता से ऊपर टीले तक चढ़ना,जंगली जानवरों की भयंकर गर्जना के बावजूद भी भक्तजन इस स्थान पर माँ के दर्शनों के लिये आने लगे।
जंगल के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहाँ पर आये थे।
कहा जाता है कि टीले के पास माँ दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था। कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी लोगों द्वारा देखा गया।
भगवान शिव की अर्धांगिनि माँ पार्वती का एक नाम 'गिरिजा' भी है।
गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें इस नाम से बुलाया जाता है।
गर्जिया देवी मन्दिर में माँ गिरिजा देवी सतोगुणी रूप में विद्यमान हैं,
जो सच्ची श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यहाँ पर नारियल,लाल वस्त्र,सिन्दूर,धूप,दीप आदि चढ़ा कर माँ की वन्दना की जाती है। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु घण्टी या छत्र आदि चढ़ाते हैं।
नव-विवाहित स्त्रियाँ यहाँ पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं।
निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता के चरणों में झोली फैलाते हैं।
वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की 4.5 फिट ऊंची मूर्ति स्थापित हैँ इसके साथ ही माता सरस्वती,गणेश तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियाँ भी मुख्य मूर्ति के साथ स्थापित हैं।
इसी परिसर में एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है।
इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहीं पर हुई खुदाई के दौरान मिली थी।
भक्तों का आगमन कार्तिक पूर्णिमा को कोसी में स्नान के पावन पर्व पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ती है।इसके अतिरिक्त गंगा दशहरा,नव दुर्गा,शिवरात्रि,उत्तराणी,बसंत पंचमी में भी काफ़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं।
पूजाके विधान के अन्तर्गत माता गिरिजा की पूजा करने के उपरान्त बाबा भैरव (जो माता के मूल में संस्थित है) को चावल और मास (उड़द) की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना आवश्यक माना जाता है।
विशेष माना जाता है  कि भैरव की पूजा के बाद ही माँ गिरिजा की पूजा का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है।
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एक मोहब्बत ऐसी भी

एक मोहब्बत ऐसी भी
मेरे प्यारे दोस्तों कैसे हो आप सब?
दोस्तों जैसा की हम सब जानते है ये फरवरी का महीना अपने पुरे सबाब पर है।
फरवरी का महीना मतलब प्यार इश्क़ मोहब्बत का महीना लाखों-करोड़ों दिलो को आपस में जुड़ने का जो सही समय होता है वो है फरवरी का महीना।
दोस्तों आज Uttarakhand Unlimited की टीम  लेकर आयी है एक ऐसी कहानी जिसमे काम के दबाव के बीच उनके रास्ते अलग हुए पर उनके जज्बात हमेशा साथ रहे।
ये कहानी हैं देहरादून के रितेश और साक्षी की।
रितेश एक फैक्ट्री में काम करता था और वही उसकी पत्नी साक्षी एक हाउसवाइफ थी।अभी कुछ ही साल हुए थे उनकी शादी को और उनका उनका 3 साल का लड़का प्रिंस भी था।
एक दिन रितेश जब शाम को आया।तो घर में घुसते ही बेटे ने कहा - पापा !माँ की अंगुली कट गयी आज ।बहुत खून निकला था ।रसोई में देखा तो बीबी रोटियाँ सेंक रही थी ।उसने कपड़े उतार कर खूंटी पर टाँगे और मुंह हाथ धोकर साक्षी से बोला - क्या हो गया हाथ को ?
साक्षी-नया चाकू था सो सब्जी काटते हुए अंगूठा कट गया ।
रितेश- और फिर भी तुम लगी हुई हो,
क्या खाना मैं नहीं बना सकता था ?
साक्षी-तुम भी तो थके हारे आते हो सारा दिन लोहा काट पीट कर और फिर आकर चूल्हे में हाथ जलाओ ये मेरे रहते तो न हो सकेगा ।
रितेश-कमाल करती हो तुम भी,
ये गाँव नहीं है ,यहाँ तो औरतो के पैर तक दबाये जाते हैं और तुम हो कि मुझे रसोई भी न बनाने दोगी ।
साक्षी-बैठो यहाँ,मैं तुम्हें गरम रोटी परोसती हूँ।
जैसे ही सब्जी मे साक्षी के अंगुली के पोर गये उसके मुंह से सिसकारी निकल गयी।वो वैसे ही बेटे को बगल में बैठा कर उसके मुंह में भी निवाले देती गयी।
रितेश-लाओ थाली मुझे दे दो तुम आराम करो मैं जरा रसोई सम्हाल लूँ पहले तुम खाना खाकर बाहर आओ ।
साक्षी-क्या हो गया जी ?
ऐसे क्यों चिल्ला रहे हो ?
रितेश रसोई में घुसा और बर्तन साफ करने लगा ।उसके भी हाथों को आज बर्तन धोने में जलन हो रही थी,मगर सारे बर्तन चमका कर ही बाहर निकला ।
साक्षी-ये आज अच्छा नहीं किया तुमने,
मेरे रहते तुम ने बर्तन साफ किए और वह सुबकने लगी आँसू पोंछने के लिए रितेश ने जैसे ही चेहरे को छुआ तो हाथों की हालत गालों ने बयान कर दी ।
साक्षी हाथों को होंठों से चूमते हुए बोली - कैसे आदमी हो तुम ?
दर्द को रोजी बनाए फिरते हो और आज मेरा भी दर्द अपना बना लिया |
जलन का मीठा एहसास आँखों की चमक और प्यार की मिठास बढ़ा गया था।
दोस्तों कैसी लगी आपको ये कहानी ?
जरूर बतायेगा।
और शेयर जरूर कीजिये उन सब तक जो आपके लिये सब कुछ है जिससे आपकी जिंदगी में और भी सकारात्मक पहलू जुड़ जाये।
     लेख को पढने के लिये तहेदिल से आपका शुक्रिया ।
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अब महिलाओं को मिलेगा ये सम्मान कोई नही कर सकेगा कभी भी उनका अपमान

अब महिलाओं को मिलेगा ये सम्मान कोई नही कर सकेगा कभी भी उनका अपमान
भारत भूमि वह पावन भूमि रही है जिस पर कई साल पहले से ही देवी-पूजन होता रहा हैं और यहाँ बेटियों को देवी का स्वरूप माना गया हैं फिर भी न जाने आये-दिन बेटिया कितनी परेशानियां झेलती रहती हैं लेकिन कन्या भ्रूण हत्या जब भी सुनता हूँ दिल भी रो जाता हैं आखिर उस नन्ही कली ने क्या गुनाह किया था।लेकिन अब लगता हैं ये सब समस्याएँ इतिहास हो जायेगी।
क्योकी अब उनके बेहतर भविष्य की रूप-रेखा तैयार हो गयी है।
माँ! मैं भी जीना चाहती हूँ
तेरे आँगन की बगिया में
चाहती मैं हूँ पलना
पायल की छमछम करती माँ!
चाहती मैं भी चलना
तेरी आँखों का तारा बन
चाहती झिलमिल करना
तेरी सखी सहेली बन माँ!
चाहती बाते करना
तेरे आँगन की बन तुलसी
चाहती मैं हूँ बढ़ना
मान तेरे घर का बन माँ!
चाहती मैं भी पढ़ना
हाथ बँटाकर काम में तेरे
चाहती हूँ कम करना
तेरे दिल के प्यार का गागर
चाहती मैं भी भरना
मिश्री से मीठे बोल बोलकर
चाहती मैं हूँ गाना
तेरे प्यार दुलार की छाया
चाहती मैं भी पाना
चहक-चहक कर चिड़ियाँ सी
चाहती मैं हूँ उड़ना
महक-महक कर फूलों सी
चाहती मैं भी खिलना।
कुछ वर्ष पहले से भारत में बेटियों की पेट मे ही नृशंस हत्या जैसा घिनौना काम हो रहा है और कुछ लोग इसका मात्र
व्यसाय कर रहे हैं।
लेकिन कुछ सालो से लोगो की सोच मे सराहनीय बदलाव आया जो भविष्य के लिये शुभ संकेत है।कुछ सालो से बेटियों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में किया गया कार्य और उनका सहयोग उलेखनीय है जो हमेशा इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरो में लिखा जायेगा।
बेटियों के इस अभियान मे उनके साथ बहुत सारे लोगों,सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओ,केंद्र व राज्य सरकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं।
आज हम आपको एक विशेष संस्था के बारे मे बता रहे है जिसने फिर से नन्ही सी बेटियों को समाज के दरिंदो से बचाने और उन्हें आगे बढ़ाने का बेडा उठाया हैं वह है ऑक्सी हेल्थकेयर।
क्या हैं ऑक्सी हेल्थकेयर
ऑक्सी हेल्थकेयर स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक अग्रणी संस्था है जो लोगो के स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखती है और समय-समय पर फ्री चिकित्सा शिविरों का आयोजन करती हैं और साथ ही "गर्ल डेवलपमेंट प्रोग्राम" चलाती है।
क्या हैं "गर्ल डेवलपमेंट प्रोग्राम"
भारत सरकार,विभिन्न राज्य सरकारों और विभिन्न संस्थाओं ने बेटियों के बेहतर भविष्य के लिये बहुत सारी योजनाये शुरू की हैं।इनमें से एक हैं ऑक्‍सी गर्ल डेवलपमेंट प्रोग्राम।इस प्रोग्राम के तहत बेटी का जन्‍म होने के तुरंत बाद उसके नाम पर 11 हजार रुपए बैंक मे जमा किये जाते हैं।
कंपनी बेटी के नाम पर सेविंग्‍स अकाउंट खुलवाती है और उसमें पैसे जमा करवाती है। इन पैसों को बेटी 18 साल के होने पर निकाल सकती है।
इसके अलावा कंपनी मां और बेटी के स्‍वास्‍थ्‍य की देखभाल करने की जिम्‍मेदारी भी लेती है।इस प्रोग्राम के तहत सस्था प्रत्येक साल 1 हजार करोड़ का बजट बनाती है।
यह एक सम्मान दे रहा हैं उन सभी माँ को जो बेटियों को जन्म तो देना चाहती है पर उनके अंधकारमय भविष्य के डर से पैदा नही होने देना चाहती।
ये सम्मान हैं उन बेटियो को जो जिंदगी की जंग जितना चाहती हैं।
कौन करे आवेदन
इस प्रोग्राम में सभी भारतीय महिलाये आवेदन कर सकती हैं लेकिन इसके लिये एक शर्त रखी गयी है जिसके अनुसार इस प्रोग्राम के तहत वही महिलायें आवेदन कर सकती है जो गर्भवती हो।फिर चाहे वो देश के किसी भी कोने से किसी भी धर्म,वर्ग,समुदाय से सम्बंधित हो।
ऐसे करें आवेदन
ऑक्‍सी गर्ल डेवलपमेंट प्रोग्राम में इस बेनेफिट को हासिल करने के लिए मां को प्रेग्‍नेंसी के दौरान ही खुद को रजिस्‍टर करना होगा।
बेटी पैदा होने के बाद कंपनी नवजात के स्‍वास्‍थ्‍य की जांच कराएगी।
इसके साथ ही जन्‍म प्रमाणपत्र का वेरीफिकेशन भी किया जाएगा।ये सब सफल होने के बाद कंपनी बेटी के नाम पर सेविंग्‍स अकाउंट खुलवाकर उसमें पैसे जमा कर देगी।
कहाँ होगा आवेदन
इसके लिये घर बैठे ही करना होगा आवेदन फिलहाल कंपनी के इस प्रोग्राम में आवेदन करने के लिए आपको मोबाइल ऐप का सहारा लेना पड़ेगा।
इसके लिए ऑक्‍सी हेल्‍थ ऐप डाउनलोड करना होगा।इस ऐप को डाउनलोड करने के बाद गर्ल चाइल्‍ड ऑप्‍शन पर क्लिक करें।
इस पर जाते ही आप गर्ल चाइल्‍ड डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत खुद को रजिस्‍टर कर सकते हैं।
इस प्रोग्राम के तहत कंपनी दो ऑप्‍शन देती है।इनमें से ही आपको एक चुनना होगा। पहला, बेटी के नाम पर एफडी और दूसरा मां व बच्‍चे (बेटा-बेटी) के स्‍वास्‍थ्‍य की पूरी देखभाल का जिम्‍मा उठाने का विकल्‍प मिलेगा।
विशेष-यह एक फ्री प्रकार की सेवा है जिसका कोई भी शुल्क लागू नही होगा।
Uttarakhand Unlimited की पूरी टीम  आप से एक सहयोग की उम्मीद करती है की जितना हो सके आप इस लेख को शेयर करे जिससे की एक नन्ही सी परी को एक ज़िंदगी मिल सके।
फिर से कोई बेटी कोख से मरने से बच जाये।
आप ये जानकारी सभी तक पहुँचायें ताकि बेटियो को बेहतर भविष्य मिल सके।
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और शुरू हो गयी उत्तराखंड शीतकालीन चारधाम यात्रा

और शुरू हो गयी उत्तराखंड शीतकालीन चारधाम यात्रा

उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा आस्था की जीत,
अध्यात्म से साक्षात्कार एवं प्रकृति के अदभुत रूप का दर्शन है।
अध्यात्म और तीर्थ के लिए हर मौसम और महीना उपयुक्त्त होता है,
यही संदेश देती है सर्दियों में भी चारधाम यात्रा।
उत्तराखंड में घोर सर्दी के कारण यहां के चार धाम केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री पूरी तरह बर्फसे ढक जाते हैं,
मगर आस्था की ज्योति यूँ ही जलती रहती है।
अक्टूबर उत्तरार्द्ध से अप्रैल पूर्वाद्ध तक अर्थात इस राज्य में घोर सर्दी के तकरीबन छह महीनों के दौरान यहां के चारधाम-केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री क्रमश ऊखीमठ, पांडुकेश्वर (जोशीमठ), मुखवा और खरसाली ही चार धाम बन जाते हैं,
क्योंकि उपरोक्त मंदिरों के प्रतीक एवं देवी-देवताओं की प्रतिमाएं इन्हीं स्थानों के पवित्र मंदिरों में स्थापित कर दी जाती हैं।
यही वजह है की गत वर्ष से राज्य ने शीतकालीन चार धाम दर्शन को प्रोत्साहित करने का कार्य आरंभ कर दिया है।
सर्दियों में पर्यटन की संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती है और उसकी एक बड़ी वजह बर्फबारी और बिल्कुल धवल पर्वत श्रृंखलाओं की देखने की ललक होती है।
वहीं सर्दियों में खूब सारी खेलकूद गतिविधियोंमें शामिल हुआ जा सकता है।
सर्दियों में प्राकृतिक आपदाएं- जैसे बाढ़ और बादल का फटना आदि भी नहीं होतीं।
उत्तराखंड इन दिनों अपने मेहमानों की स्वागत के लिए पूरी तरह से तैयार रहता है।
अनेक प्रकार के मेले और त्यौहार जैसे-माँ भवानी भगवती पूजा, पांडव नृत्य  आदि इन दिनों के आकर्षण होते हैं।
इसके अलावा,
मुख्य तीर्थधाम के आस पास बर्फ भी इनका आकर्षण बढ़ा देते है।
सामन्यतः मुखबा अर्थात गंगोत्री से चारधाम यात्रा का शुभारंभ किया जाता है।
हरिद्वार से लेकर जोशीमठ तक की यह शीतकालीन चारधाम यात्रा कुल 11-12 दिनों में पूरी की जा सकती है।
इसी अनुसार इसके पैकेज तैयार किए जाते है।
पहला दिन हरिद्वार, दूसरा दिन हरिद्वार से बरकोट,तीसरे दिन बरकोट से खारसली फिर बरकोट,चौथे दिन बरकोट से हर्षिल, पांचवें दिन हर्षिल से मुखबा फिर उत्तरकाशी,छठे दिन उत्तरकाशी से गुप्तकाशी,सातवें दिन गुप्तकाशी से उखीमठ, आठवें दिन गुप्तकाशी से चोपता होते हुए जोशीमठ,नोंवें दिन जोशीमठ से पांडुकेश्वर फिर वापस जोशीमठ,दसवें दिन जोशीमठ से ऋषिकेश,ग्यारहवें दिन ऋषिकेश से वापसी अपने-अपने घरों की ओर।
उत्तराखंड के चारधाम की यात्रा की शुरुआत हरिद्वार से होती है,
हरिद्वार यानी शिव जी ओर उनका द्वार हरिद्वार।
कई नामों से सुशोभित हरिद्वार की हर की पौड़ी में शाम को गंगा की महाआरती की दृश्य अदभुत होता है।
यहां स्थित मनसा देवी मंदिर की बड़ी मान्यता है।
चंडी देवी, माया देवी, भारत माता एवं भीम मंदिर में आस्थावान पर्यटक पूजा-अर्चना एवं दर्शन के लिए आते हैं।
साथ ही, सप्त ऋषि, परमार्थ, साधु-चेला आश्रम व मंदिर तथा शांति कुंज भी दर्शनीय है।
अगले दिन हम प्रातः हरिद्वार से देहरादून-मसूरी होते हुए बरकोट पहुंचे।
देहरादून-मसूरी की सीमा पर एक मशहूर शिव मंदिर है।
इस मंदिर की एक खास बात मुझे बहुत भाई कि मंदिर में कहीं कोई दान-पात्र ही नहीं है,
बजाय इसके यहां लिखा है कृपया कहीं कोई चढ़ावा न दें,
ईशवर ही सब को देने वाला है।
इस मंदिर में यात्री अवश्य सिर नवाते हैं और मुफ्त में प्रसाद एवं चाय ग्रहण करते हैं। देवभूमि उत्तराखंड में चारधाम यात्रा का मार्ग इतना खूबसूरत एवं भव्य है कि मन रोमांचित हो उठता है।
प्रातः हम बरकोट पहुंच गए।
तीसरे दिन सुरम्य घाटियां, पर्वत एवं चट्टियों अर्थात विश्राम स्थल से गुजरते हुए खरसाली पहुंचे।
खरसाली उत्तरकाशी में स्थित एक छोटा-सा गावं है,
जहां यमुनोत्री देवी(माँ यमुना जी) कि गद्दी है,
यहीं पर भारत का सबसे प्राचीन शनि मंदिर है और सर्दियों में यहीं पर देवी यमुनोत्री की प्रतिमाएं रखी जाती हैं।
इस प्रकार इस स्थान का महत्व कई गुना बढ़ जाता है।
खरसाली से पुनः बरकोट की और दिव्य अनुभव लिए नैसर्गिक सौन्दर्य का आंनद लेते हुए।
चौथे दिन बरकोट से हरसिल में रात्रि विश्राम कई बाद पांचवें दिन पुनः एक छोटे से गाँव मुखबा की ओर।
भागीरथी के तट पर स्थित हर्षिल बेहद आकर्षक है,
इस शहर में स्थित मुखबा गाँव में माँ गंगोत्री की गद्दी के कारण मशहूर है,
क्योंकि सर्दियों में गंगोत्री क्षेत्र बर्फ से ढक जाता है।
गंगोत्री पूजन के बाद यात्रा आगे बढ़ती है उत्तरकाशी की ओर।
छठे दिन उत्तरकाशी में विश्वनाथ मंदिर एवं परशुराम मंदिर दर्शनीय है उत्तरकाशी से गुप्तकाशी रास्ता उतना ही मनोरम है,
मन्दाकिनी के  किनारे चलते हुए देवदार ओर चीड़ के वनों का नजारा वाकई अविस्मरणीय बन जाता है।
देर शाम हम गुप्तकाशी पहुंचे।
रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन अर्थात सातवें  दिन बद्री विशाल होते हुए उखीमठ।
उखीमठ में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर का विशेष महत्व है।
यह श्री केदारनाथ जी एवं मदमहेश्वर का गद्दीस्थल है।
सर्दियों में जब केदरनाथ का पट बंद हो जाता है,
तो इसी मंदिर में उनकी प्रतिमाएं स्थापित कर दी जाती हैं।
केदारनाथ के दर्शन के बाद वापस गुप्तकाशी में रात्रि विश्राम।
अगले यानी आठवें दिन चोपता होते हुए जोशीमठ की ओर।
चैपता का सौंदर्य अद्धितीय है।
इसे भारत का स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है।
मखमली कालीन से बुग्याल, पहाड़ी काक, मोहक झरने सभी यहां की खूबसूरती बयान करते हैं,
यहां से 9 किलोमीटर दूर तुंगनाथ मंदिर एवं चंद्रशिला है और रास्ते में कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र भी है।रास्ते में कस्तूरी मृग दिख जाते है।
जोशीमठ पहुंचते-पहुंचते शाम हो जाती है। नोवें दिन जोशीमठ में ही स्थित पांडुकेश्वर कि यात्रा,
जहां वासुदेव मंदिर में बदरीनाथ जी कि गद्दी है।
जोशीमठ एक लोकप्रिय स्थान है,
क्योंकि यहीं से ओली, फूलों कि घाटी, हेमकुंड साहिब, बदरीनाथ एवं नीती घाटी के लिए रास्ता जाता हैं,
ओली स्कीइंग  और पर्यटन लिए मशहूर है।
जोशीमठ में जाकर शीतकालीन चारधाम यात्रा पूरी होती है।
जोशीमठ में नरसिंह भगवान का मंदिर है,
यहां भगवान नरसिंह का शांत रूप है।
यह मंदिर आदि शंकराचार्य का गद्दी स्थल भी है और सबसे आश्चर्यजनक ढाई हजार पुरानी नवदुर्गे कि प्रतिमाएं हैं।
जोशीमठ में स्थित आठ मीटर के घेरे में फैले कल्पवृक्ष कि बड़ी मान्यता है।
कल्पवृक्ष के तले भगवान शंकर का मंदिर है।
यहीं पर रहकर शंकराचार्य ने तीन साल तक तपस्या की थी।
दसवें दिन जोशीमठ से ऋषिकेश,
यहां पवित्र गंगा, लक्षमण झूला, कई मंदिरों के दर्शन के बाद ग्यारहवें दिन वापस घर की ओर।
इतना सुंदर, आध्यात्मिक, जीने लायक और उत्कृष्ट भारत का अहसास इस यात्रा के दौरन ही हो सकता है, सत्यम, शिवम, सुंदरम, का अहसास।
तो आप भी सोचिये मत बस चलिये उत्तराखंड की बेहद खूबसूरत वादियो की ओर।

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