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क्या महत्व है उत्तराखंड की गर्जिया माँ का

सम्पूर्ण भारत वर्ष में अनेक देवी-देवताओं का पूजन किया जाता रहा है उन मे से माँ भगवती दुर्गा  प्रमुख है पुरे देश में माँ को अलग अलग रुपो मे पूजा जाता है।माँ भगवती के इतने सारे नाम और अलग अलग नामो से बने मन्दिर इसका बेहतरीन उदाहरण पेश करते है।
आज हम आपको ले चलते है फिर से उस जगत-जननी के चरणों मे,
हम चलते माँ के एक अदभुत रूप के दर्शन करने। गर्जिया देवी मन्दिर या 'गिरिजा देवी मन्दिर 'उत्तराखण्ड के सुंदरखाल गाँव में स्थित है, जो माता पार्वती के प्रमुख मंदिरों में से एक है।
यह मंदिर श्रद्धा एवं विश्वास का अद्भुत उदाहरण है।
उत्तराखण्ड का यह प्रसिद्ध मंदिर रामनगर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
मंदिर छोटी पहाड़ी के ऊपर बना हुआ है, जहाँ का खूबसूरत वातावरण शांति एवं रमणीयता का एहसास दिलाता है।
देवी के प्रसिद्ध मन्दिरों में गिरिजा देवी (गर्जिया देवी) का स्थान अद्वितीय है। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ही इन्हें इस नाम से पुकारा जाता है।
मान्यता है कि जिन मन्दिरों में देवी वैष्णवी के रूप में स्थित होती हैं,
उनकी पूजा पुष्प प्रसाद से की जाती है और जहाँ शिव-शक्ति के रूप में होती हैं,
वहाँ बलिदान का प्रावधान है।
लेकिन बदलते वक़्त के साथ यह प्रथा भी इतिहास हो गयी है।

  1. माना गया है कि कूर्मांचल(वर्तमान में कुँमाऊ) की सबसे प्राचीन बस्ती ढिकुली के पास थी, जहाँ पर वर्तमान रामनगर बसा हुआ है।कोसी नदी के किनारे बसी इसी नगरी का नाम तब 'वैराट पत्तन' या 'वैराट नगर' था।कत्यूरी राजाओं के आने के पूर्व यहाँ पहले कुरु राजवंशके राजा राज्य करते थे,जो प्राचीन इन्द्रप्रस्थ(आधुनिक दिल्ली) के साम्राज्य की छत्रछाया में रहते थे।ढिकुली,गर्जिया क्षेत्र का लगभग 3000 वर्षों का अपना सुनहरा इतिहास रहा है।प्रख्यात कत्यूरी राजवंश,चन्द्र राजवंश, गोरखा वंश और अंग्रेज़ शासकों ने यहाँ की पवित्र भूमि का धार्मिक सुख भोगा है।गर्जिया नामक शक्ति स्थल सन 1940 से पहले उपेक्षित अवस्था में था,किन्तु 1940 से पहले की भी अनेक कहानियां इस स्थान का इतिहास बताती हैं।वर्ष1940 से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज जैसी नहीं थी,कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था।तत्कालीन जनमानस की धारणा थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था।मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देखकर भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- "थि रौ, बैणा थि रौ" अर्थात् 'ठहरो,बहन ठहरो',यहाँ पर मेरे साथ निवास करो।तभी से गर्जिया देवी उपटा में निवास कर रही हैं।
भौगोलिक दृश्या
माँ गर्जिया का मन्दिर कोसी नदी पर स्थित है।या सीधे शब्दों मे कहूँ तो कोसी रोज माँ के चरणों को धोती है।माँ का मन्दिर एक टीले पर स्थित है जहाँ पहुंचने के लिये 90 सीढ़ीयो का निर्माण किया गया है।
[1]धार्मिक मान्यता
मान्यता है कि वर्ष 1940 से पूर्व यह क्षेत्र भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था।
सर्वप्रथम जंगल विभाग के तत्कालीन कर्मचारियों तथा स्थानीय छुट-पुट निवासियों द्वारा टीले पर मूर्तियों को देखा गया और उन्हें माता जगत जननी की इस स्थान पर उपस्थिति का एहसास हुआ। एकान्त सुनसान जंगली क्षेत्र,
टीले के नीचे बहती कोसी नदी की प्रबल धारा,घास-फूस की सहायता से ऊपर टीले तक चढ़ना,जंगली जानवरों की भयंकर गर्जना के बावजूद भी भक्तजन इस स्थान पर माँ के दर्शनों के लिये आने लगे।
जंगल के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहाँ पर आये थे।
कहा जाता है कि टीले के पास माँ दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था। कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी लोगों द्वारा देखा गया।
भगवान शिव की अर्धांगिनि माँ पार्वती का एक नाम 'गिरिजा' भी है।
गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें इस नाम से बुलाया जाता है।
गर्जिया देवी मन्दिर में माँ गिरिजा देवी सतोगुणी रूप में विद्यमान हैं,
जो सच्ची श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यहाँ पर नारियल,लाल वस्त्र,सिन्दूर,धूप,दीप आदि चढ़ा कर माँ की वन्दना की जाती है। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु घण्टी या छत्र आदि चढ़ाते हैं।
नव-विवाहित स्त्रियाँ यहाँ पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं।
निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता के चरणों में झोली फैलाते हैं।
वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की 4.5 फिट ऊंची मूर्ति स्थापित हैँ इसके साथ ही माता सरस्वती,गणेश तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियाँ भी मुख्य मूर्ति के साथ स्थापित हैं।
इसी परिसर में एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है।
इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहीं पर हुई खुदाई के दौरान मिली थी।
भक्तों का आगमन कार्तिक पूर्णिमा को कोसी में स्नान के पावन पर्व पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ती है।इसके अतिरिक्त गंगा दशहरा,नव दुर्गा,शिवरात्रि,उत्तराणी,बसंत पंचमी में भी काफ़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं।
पूजाके विधान के अन्तर्गत माता गिरिजा की पूजा करने के उपरान्त बाबा भैरव (जो माता के मूल में संस्थित है) को चावल और मास (उड़द) की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना आवश्यक माना जाता है।
विशेष माना जाता है  कि भैरव की पूजा के बाद ही माँ गिरिजा की पूजा का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है।

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